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आपातकाल विशेष : कायस्थ बाहुल्य सीटों से आने वाले कायस्थ नेता निकम्मे साबित हुए हैं – आशु भटनागर

आज ही के दिन 25 जून, 1975 को देश में आपातकाल घोषित कर दिया गया था I आज का दिन देश में किसी भी तरह की तानाशाही को स्वीकार ना करने का दिन है I ऐसे में जिस आपातकाल के खिलाफ कायस्थों ने तब आवाज़ उठाई वो आज राजनीती में कहाँ है ? क्या वो आज कुछ कर पा रहे है

देखा जाए तो संसद और विधानसभाओं में कायस्थ बाहुल्य सीटों पर चुनकर आने वाले कायस्थ जनप्रतिनिधियों ने अपने समुदाय को लगातार निराश किया है I कायस्थ हितों के सवाल उठाने में ये जनप्रतिनिधि बेहद निकम्मे साबित हुए हैं I लेकिन क्या सिर्फ ये उनकी कोई ग़लती  है उनका ऐसा करना एक संरचनात्मक मजबूरी है क्योंकि उनका चुना जाना उनके कायस्थ समाज के वोटों पर निर्भर ही नहीं है I

कायस्थ समाज के जीते हुए या जीतने के लिए जदोजहद कर रहे लोगो से सवाल पूछिये क्या कायस्थ उत्पीड़न की  घटनाओं के ख़िलाफ़ कायस्थ सांसदों या विधायकों ने कोई बड़ा, याद रहने वाला आंदोलन किया है? ऐसे सवालों पर, संसद कितने बार ठप की गई है I उनका जबाब होगा ना I  क्योंकि किसी भी राजनैतिक दल में नेता बन्ने की शर्त ही होती है की पार्टी लाइन पर चलना I ऐसे कायस्थ जनप्रतिनिधियों का कायस्थों के हित में आना नामुनकिन लगता है उदहारण के तोर पर हम पटना साहिब का उदाहरण लेते है I पटना साहिब कायस्थ बाहुल्य सीट रही है यहाँ बिना कायस्थों के समर्थन के किसी  का भी विधायक या सांसद बनना असंभव है I शत्रुघ्न सिन्हा यहाँ से 2 बार बीजेपी के टिकट पर सांसद बने पर वो कायस्थों के कार्यक्रम में जाना तो छोडिये कायस्थों से सीधे मिलने से भी परहेज करते रहे I पटना के कयास्ठो को २०१९ में एक ही शिकायत थी की शत्रुघ्न सिन्हा को जिताने के बाद अपने काम के लिए उनको ढूंढने कौन जाएगा ? लोगो की शिकायते शत्रुघ्न सिन्हा की अनुपलब्धता, उनके राजनेता की जगह फिल्म स्टार वाले वयवहार पर इतनी ज्यदा थी की इस बार २०१९ में उनसे भी ज्यदा कायस्थों के साथ ना दिखाई देने वाले रविशंकर प्रसाद को ही वोट दे दिया I २०१९ के चुनावों में पटना के कायस्थों के सामने समस्या थी दो कायस्थ समाज के काम ना आने वाले नेताओ में से किसे चुने I लोगो ने बिहार की सवर्ण राजनीती को ध्यान रखते हुए रविशंकर प्रसाद को वोट दिया I आंकड़े कहते है अगर रविशंकर प्रसाद की  जगह बीजेपी से कोई भी खड़ा होता तो वो जीत जाता क्योंकि लोगो को कायस्थ प्रत्याशी से कोई आशा नहीं थी और न ही उन्होंने रविशंकर प्रसाद से कोई आशा राखी है I पटना के लोगो का चुनावों के बाद कहना है की हमने वोट दे दिया है और अब उम्मीद के मुताबिक़ हमको शत्रुघ्न सिन्हा की तरह रविशंकर प्रसाद से भी अपने किसी काम के लिए कोई उम्मीद नहीं है I ऐसा नहीं है की सिर्फ पटना के लोग ही इस तरह की समस्याओं से दो चार हो रहे है I उत्तर प्रदेश के प्रयागराज( पहले इलाहाबाद) पश्चिम के विधायक सिद्धार्थ नाथ सिंह को लेकर भी वहां के कायस्थों की यही भावनाए हैं I इस सीट पर लगभग ४०००० कायस्थ वोट निर्णायक रहते है I २०१७ के विधान सभा चुनाव में बंगाल से आकर चुनाव लढ़कर जीते सिद्धार्थ नाथ सिंह पर जनता के आरोप है की सिद्धार्थ जनता से मिलते नहीं है I कायस्थ नेताओ का कहना है सिद्धार्थ अपने गिने चुने १०-12 लोगो के अलावा किसी कायस्थ से उसकी समस्या को लेकर नहीं मिलते है I हालात इस हद तक ख़राब है  की अगर आज चुनाव हो जाए तो सिद्धार्थ नाथ सिंह को कायस्थों के वोट का एक बड़ा हिस्सा शायद ही समर्थन करे I बड़ा सवाल ये है की अगर ये सांसद/विधायक कायस्थों के सवालों को नहीं उठाते तो फिर वे चुने कैसे जाते हैं? क्या उन्हें हारने का भय नहीं होता? इसी सवाल के जबाब में हल भी छिपा हुआ है I असल में आप किसी भी राजनैतिक दल में मौजूद इन नेताओं के बैकग्राउंड को अगर आप देखेंगे तो जानेगे की इनको इनकी पार्टियों में बहुत ज्यदा समर्थन नहीं हासिल है I चूँकि ये समाज को लेकर कभी मुखर नहीं रहे है तो पार्टीया ये मानकर कर चलती है की इनको हटा देने भर उनको कोई फर्क नहीं पड़ेगा I पटना साहिब में शत्रुघ्न सिन्हा को हराकर बीजेपी में यही साबित भी किया I हालाँकि शत्रुघ्न सिन्हा के हारने में बीजेपी से ज्यदा शत्रुघ्न सिन्हा के अवय्वाह्रिक चुनावी प्रबंधन का बड़ा हाथ था I लेकिन फिलहाल बीजेपी ने साबित कर दिया की कायस्थ किसी कायस्थ को जातीय आधार पर वोट नहीं देते है

आन्दोलन कैसे बनता है इसके लिए हमें १९८४ में कांशी राम के बहुजन समाज पार्टी  बनाने के क्रम को भी देखना चाहिए नीचे उस दौरान का एक पोस्टर है आप समझिये कैसे कायस्थ एक हो

१९८४ में बसपा के लिए कांशी राम का चलाया गया आन्दोलन जिसके बाद बसपा बनी

तो अब नया क्या हो ? कायस्थ समाज एक बार फिर से उसी २०१४ के निराशा के दौर में है जहाँ उसको पता था की संसद/विधानसभाओ में हमारा प्रतिनिधित्व ना के बराबर है बल्कि २०१९ आते आते ये स्थिति और भी ख़राब हो गयी है I ऐसे में जहाँ कुछ संगठनो ने अपने वयाक्तिगात्गत लाभ के लिए नए राजनैतिक दल बनाये जाने की बात शुरू कर दी है वही कुछ लोगो ने कायस्थ को मुसलमानो , दलित और आदिवासियों के साथ मिलकर नया आन्दोलन शुरू करने की योजना पर काम शुरू कर दिया है क्या ऐसे आन्दोलन कामयाब होंगे ? कायस्थों का इतिहास बताता है की कायस्थ योजनाये तो बनाते है लेकिन क्रियान्वन के समय चुक जाते है I जेपी का आन्दोलन हो या अन्ना का आन्दोलन दोनों हमें ये बताते है की किसी भी आन्दोलन को बड़ा करने के लिए सबसे पहले ज़रूरी होता है व्यक्तिगत ईगो , पहचान और लाभ का त्याग करना I  जेपी के आन्दोलन में तमाम राजनैतिक दलों के साथ जनसंघ  तक ने अपना विलय इन्दिरा गांधी के खिलाफ कर दिया था I महज कुछ सालो पहले दिल्ली में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के आन्दोलन में भी लोगो ने अपनी पहचान मिटा कर आनोद्लन खड़ा किया जिसका फायदा भले ही बाद में संघ /बीजेपी और आम आदमी पार्टी ने लिया कायस्थ आन्दोलन को राजनैतिक रूप से संफल बनाने के लिए महत्वपूर्ण ये है की हम चुके हुए कायस्थ नेताओं के पीछे एक विवादित संगठन को रख कर कुछ करने की चाह रख रहे है तो निश्चित जानिये आपको समर्थन नहीं मिलने जा रहा है I जब तक आपका विजन , नीयत और उद्देश्य लोगो के सामने साफ़ नहीं होंगे तब तक लोग आपके समर्थन में नहीं होंगे I आन्दोलन की आड़ में ABKM जैसे विवादित संगठन को बैक करना कायस्थ समाज को कोई लाभ नहीं दे सकता है इसके लिए महत्वपूर्ण है कायस्थ समाज के हित के लिए ऐसे सभी संगठनों का एक आन्दोलन में विलय करना I अगर आप वो कर पाए तो इतिहासपुरुष होंगे नहीं तो असफल लोगो को इतिहास बहुत जल्दी भुलाता है आशु भटनागर  

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