आशु भटनागर I कायस्थ पाठशाला के चुनाव परिणाम को आए चार मास बीत चुके हैं किंतु इसके नवनिर्वाचित अध्यक्ष डॉ सुशील सिन्हा अभी तक अपने गठबंधन के साथियों के बीच समन्वय बनाने में असफल साबित हो रहे हैं । वर्तमान हालात में डॉक्टर सुशील सिन्हा अपने गठबंधन के प्रमुख चेहरों टीपी सिंह, केपी श्रीवास्तव कुमार नारायण और श्रीमती रतन श्रीवास्तव समेत कई अन्य छोटे छत्रपो की सौदेबाजी और नाराजगी से अधर में दिखाई दे रहे हैं । इसके उलट उनके प्रतिद्वंदी खेमे के लोग लगातार हमलावर है I डॉ सुशील सिंह की ऐसी हालत क्यों हो रही है इस पर हम चर्चा करें उससे पहले यह समझते हैं कि जब भी किसी एब्सलूट पावर के खिलाफ कोई जनता का गठबंधन उतरता है तो उसके साथ ऐसी हालत क्यों होते हैं ।
कायस्थ पाठशाला के वर्तमान परिदृश्य को देखकर मुझे 1977 के आम चुनाव और उसके बाद इंदिरा गांधी के आपातकाल के विरोध में मिली जीत के परिणाम स्वरुप बनी जनता पार्टी सरकार के हालात नज़र आ जाते हैं । जब मोरारजी देसाई को इंदिरा गांधी के खिलाफ सभी दलों ने मिलकर अपना प्रधानमंत्री चुना था । 1977 के लोकसभा के बारे में इतिहासकार कहते हैं कि तब कोई पार्टी नहीं असल में जनता चुनाव लड़ रही थी और यही वजह है कि जब सरकार बन गई तो अलग-अलग घटक दलों के नेताओं की महत्वाकांक्षाएं फलीभूत होने लगी और उन्होंने सरकार के खिलाफ अपने-अपने झंडे खड़े करने शुरू कर दिया बताया जाता है कि इंदिरा गांधी के खिलाफ बगावत में जगजीवन राम और हेमंती नंदन बहुगुणा जैसे कांग्रेसी भी आ मिले थे और बाद में इन्हीं सब के कारण जनता पार्टी की सरकार जाने के समीकरण भी बने बताया जाता है कि गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह और प्रधानमंत्री मोरारजी देसाईके बीच इतनी मतभेद हो गए कि चौधरी चरण सिंह ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया और इसके बाद आने वाले दिनों में कांग्रेस के समर्थन से चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बन गए।
अब इसी इतिहास के नजरिए से अगर देखे तो कांग्रेस के बड़े नेता चौधरी जितेंद्र नाथ सिंह के तानाशाही के बाद उनके पक्ष से प्रत्याशी बने राघवेंद्र सिंह के खिलाफ समाजवादी पार्टी भारतीय जनता पार्टी और अन्य विरोधी विचारधाराओं के सभी लोगों ने एकजुट होकर 2023 के कायस्थ पाठशाला चुनाव में हुंकार भरी और राघवेंद्र नाथ सिंह को हरा दिया। किंतु मोरारजी देसाई की तरह डॉक्टर सुशील सिन्हा अभी तक अपने साथियों का विश्वास जीतने में असफल रहे हैंI
हालत यह हैं कि कहीं धीरेंद्र श्रीवास्तव के परिवार से दो लोगों के उपाध्यक्ष बनाए जाने का विवाद खड़ा हो जाता है तो कहीं एक अन्य कद्दावर नेता कुमार नारायण को लेकर तमाम प्रश्न उठने लगते हैंI कभी पता लगता है कि कुमार नारायण खुद कई बातों को लेकर डॉक्टर सुशील सिंह से नाराज हैं। हालात इस कदर खराब है कि सुशील सिन्हा की अपनी सहयोगी टीम भी विरोधियों को ज्यादा महत्व दिए जाने के कारण बगावत पर उतारू है । तो वहीं सुशील सिन्हा की जीत में महत्वपूर्ण कारक बने रतन खरे लगातार नैतिकता का झंडा बुलंद कर सुशील सिन्हा की परेशानियां खड़े करने में लगे हैं ।
इनके अलावा टीपी सिंह और केपी सिंह श्रीवास्तव जैसे भीष्मपिताओं की नाराजगी के भी समाचार लगातार डॉ सुशील सिन्हा के खिलाफ आ रहे हैं । समस्या यह हो गई है कि डॉक्टर सुशील सिन्हा ना तो इन लोगों के साथ मोरारजी देसाई की भांति चीजों में समन्वय बना पा रहे हैं और ना ही वह अपनी समस्याओं के बारे में मीडिया को खुलकर बता पा रहे हैं। सुशील सिन्हा के बारे में कहा जा रहा है कि वह बीते 4 महीने में उनके कार्यकाल के दौरान उठ रहे प्रश्नों पर मीडिया से भाग रहे हैं I
बताया जा रहा है कि सुशील सिन्हा मीडिया से के तीखे सवालों का सामना नहीं करना चाहते हैं लोगो का तो यहां तक दावा है कि संभवत वह कहीं ना कहीं अपने इंटरव्यू को स्क्रिप्टड रखना चाहते हैं जिसके लिए कोई भी मीडिया तैयार नहीं हो रहा है। ऐसे में महत्वपूर्ण प्रश्न ये है कि क्या डॉक्टर सुशील सिन्हा मोरारजी देसाई की भांति बीच अपने कम्फर्ट जोन से बाहर आकर विरोधियो को मुंह तोड़ जबाब देने के लिए मीडिया को इंटरव्यू देंगे ? क्या वो वाकई आपसी खीचतान और विवाद को जल्द ही सुलझा पायेंगे ? क्या वो घटक साथियो के साथ साथ अपने समर्थको के बीच संतुलन बना सकेंगे ? क्या वो वाकई जनता पार्टी सरकार के मोरारजी देसाई साबित होंगे या फिर आने वाले दिनों में उनको कायस्थ पाठशाला के इतिहास में मोरारजी देसाई की जगह अटल बिहारी वाजपेई की भांति याद किया जाएगा ।