"हर रिश्ते में नूर बरसेगा
शर्त बस इतनी है
रिश्ते में शरारते करो साजिशें नहीं"
उन साहब ने जहाँ से बात खत्म की वहीं से शुरु कर रहा हूं।
मेरे चहेते शायर मेरे भाई राम श्याम हसीन का एक मतला और शेर कुछ यूँ है कि-
"जो वफा की बात करते हैं,
वफ़ादारी नहीं ।
ऐसे लोगों से हमारी दूर तक,
यारी नहीं।।
है यहां कुछ लोग,जो रखते हैं,
हमसे रंजिशें।
नाम भी उनका अगर लें,तो
समझदारी नहीं।।"
यह पंक्तियां आज जिन के लिए लिख रहा हूं वह साहब पत्रकार हैं,और शायरी में भी अपने हाथ आजमाते रहते हैं। मतलब समझ गए होंगे नीम चढ़ा करेला।
सब में कोई ना कोई कीड़ा होता है किसी में छपास का किसी में कपास का ,साहब में कीड़ा है हास्यास्पद भड़ास का।
नहीं-नहीं दरअसल वह अपने हिसाब से तो बड़ी गंभीर बात कहते हैं,शायद पूरी पूरी रात पूरा पूरा दिन शोध करने के बाद किसी के चरित्र का मुल्यांकन करते होंगे जनाब। सबकी जवाबदेही तय करते हैं। स्वयं को आमजन बताते हैं,और खास लोगों की प्रतिष्ठा हेतु लड़ाई लड़ते हैं।
इन्हें बशीर बद्र का एक शेर याद रखना चाहिए-
"मैं आईना हूं, मेरी अपनी जवाबदारी है।
जिसे कबूल ना हो,सामने से हट जाए ।।"
यह एकता व विकास की बात तो करते हैं परंतु अखंडता में एकता के एकमात्र तरीके गुटनिरपेक्षता में विश्वास नहीं रखते।
"इधर हाथों में हैं पत्थर,और उधर हैं लाठियाँ।
फिर अमन का फूल बगिया, में मेरे कैसे खिले।।"
अक्सर यह दलील देते हुए नजर आते हैं,कि उनके साथ नहीं उनके साथ रहिए उनके साथ नहीं उनके साथ रहिए। साहब साजिशों से भरी गुटबाजी पर बस इतना समझिये कि-
"ये बला की साजिशें,ये पैतरे मेरे खिलाफ।
रायगा हैं मै तेरे ,खेल का हिस्सा नही।।"
हालाकि मुझे इन साहब में ना तो कोई दिलचस्पी है,नहीं मेरा कोई विशेष शोध है इन पर ।
पर हां इतना जरूर है कि हमें मिली जानकारी के अनुसार इन साहब की आस्थाएं भी समय-समय पर बदलती रही हैं।कभी किसी के प्रति जागृत हो जाती है तो कभी किसी के प्रति।
वो मुनव्वर भाई का एक शेर याद आता है कि-
"पुराने ख्वाब के फिर से,
नये साँचे बदलती है।
सियासत रोज अपने खेल,
में पाले बदलती है।।"
वैसे साहब की आस्था जिसके प्रति जागृत होती है,उस से मोहभंग भी जल्द ही हो जाता है,और जब मोह भंग होता है तो उसकी भी जवाबदेही तय करने लगते हैं।
"बिछड़ना उसकी ख्वाहिश थी, न मेरी आरजू लेकिन।
जरा सी जिद्द ने,इस आंगन का बटवारा कराया है।।"
मजेदार बात ये है कि इनके पास लोगों की समाज सेवा के स्तर की जांच हेतु विशेष प्रकार के लिटमस पेपर टेस्ट की श्रृंखला मौजूद है,बस एक सवाल और हो गई आप के वर्षों के समाज सेवा की जांच।
साहब से क्या कहूँ अब एक मतला और शेर मुन्नववर भाई का ही यूँ है कि-
"मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं।
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं।।
कहानी का ये हिस्सा आजतक सब से छुपाया है।
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं।।"
साहब बड़े मस्त आदमी हैं वैसे जर्मनी के चर्चित शासक एडोल्फ़ के अनुयाई लगते हैं।
कभी-कभी आंतरिक लोकतंत्र से भरे समाज में इमरजेंसी का दौर लाना चाहते हैं।शायद तभी तो सवाल उठाने की जद्दोजहद में जवाब सुनना पसंद नहीं करते,और कहीं गलती से उनकी भाषा जैसे कि राम मिलाए जोड़ी एक अंधा एक कोढ़ी का प्रयोग करते हुए यदि कोई उन्हें जवाब दे भी दे तो बेचारे आवेशित हो जाते हैं।वो क्या कहते हैं उनकी भाषा में हां याद आया बिलबिला जाते हैं तिलमिला जाते हैं।
"यहीं से अमन की तबलीग रोज़ होती है।
यहीं पे रोज़ कबूतर हलाल होता है ।।
मैं अपने आप को सय्यद तो लिख नहीं सकता।
अजान देने से क्या कोई बिलाल होता है।।"
यह बहुत पहले से शायद कायस्थ समाज का अध्ययन कर रहे हैं तभी तो कायस्थ समाज के विभिन्न व्हाट्सप्प के पटलों पर एक विशेषज्ञ की तरह अपनी राय देते रहते हैं।
साहब ने कायस्थ समाज के हित में अपनी गुटबाजी, नकारात्मक विचारधारा तथा समय-समय पर जागृत आस्थाओं के मिश्रण को अपने सुंदर लेखन कौशल में समावेशित कर सदैव कायस्थ समाज के हित हेतु संदेह व भ्रांतियों से ओतप्रोत बड़े-बड़े लेख लिखे हैं,मैं साहब को नमन करता हूं।
आजकल मेरे चरित्र का मूल्यांकन भी साहब करने लगे हैं मैं साहब से बस इतना कहना चाहता हूं कि-
"चमक यूं ही नहीं आती है खुद्दारी के चेहरे पर।
अना को हमने दो दो वक्त का फाका कराया है।।
बड़ी मुद्दत पे खायी हैं खुशी से गालियाँ हमने।
बड़ी मुद्दत पे तुमने आज मुंह मीठा कराया है।।"
खैर पत्र लेखन का यह सिलसिला तो अब हम दोनों के बीच शुरू हो ही गया है ।
अंततः साहब को राम भाई के उसी ग़ज़ल के कुछ शेरों के साथ उनके अगले पत्र के इन्तजार में छोड़े रहा हूँ कि-
"कौन सी ये जंग हम तुम,
उम्र भर लड़ते रहे।
हमने भी जीती नहीं जो,
तुमने भी हारी नहीं।।
अपने इस गैरत के कारण,
आज तक जिंदा हूं मैं ।
वरना कुछ लालच नहीं है,
कोई लाचारी नहीं ।।
जिंदगी जीना है तो फिर ,
जिंदगी सा इसे ।
जिंदगी मर मर के जीने में,
तो होशियारी नहीं।।"
-कवि स्वप्निलआप की राय
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