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बेचारे सोनू बाबू,समर्थन कर विरोध,समर्थन का विरोध, बुद्धजीवी बने गतिरोध- कवि स्वप्निल
"हम खेलें तो गिल्ली डण्डा तुम खेलो तो टूर्नामेन्ट" लम्बे अर्से से सियासत को इसी ढर्रे पर लुढ़कते हुए देखता रहा हूँ।
परम्परागत राजनीति से लेकर समाज विशेष के एकता व विकास हेतु काम करने वाले संगठन भी इसी ढर्रे पर हैं।
वैसे साहब आईये बात अपने समाज की करते हैं, कायस्थ समाज की।
बात उस समाज की जहाँ काम बोले या ना बोले पर विवाद हमेशा बोलता है।
अब लीजिये ना इन संगठनों ने अपनी कढ़ाई में द्वेष,अभिमान,महत्वकांक्षा के गर्म तेल में ताज़ी जलेबियों से भी ताजा विवाद सोनू निगम का छान ही लिया।
पुरे देश में जब एक कायस्थ गौरव को हर जाति वर्ग से खुलकर समर्थन मिल रहा था,तब उस संगीत के साधक का समाज खामोश था।
खैर कायस्थों की क्रिकेट टीम से विवादों के पिच पर ओपनिंग करते हुए मैंने सोनू का समर्थन किया।
कायस्थयुवान के समर्थन के उपरान्त अन्य लोग भी समर्थन करने लगे।
पर यह क्या हुआ????
मेरे बाद बैटिंग करने के लिए उतरे शख्सियत ने कब बल्ला छोड़ गेंद पकड़ लिया समझ ही ना सका।
उन्होंने फास्ट बाल डालते हुए पूछ ही लिया अन्य संगठनों की खामोशी का राज क्या है।
उनकी चिंता जायज थी पर क्या करें साहब पिच ही कम्बख्त स्लो निकली, कुछ ऐसा हुआ की बाल ने अपनी लाइन और लेंथ ही खो दी, वो क्या क्या कह गए भगवान ही जानें।
दुसरी तरफ से भी जबरदस्त बैटिंग हुयी तो पुराने गड़े मुर्दे उखाड़ लिए गए। और नतीजा यह निकला की एक शख्स ने तो नौकरी तक देख लेने की धमकी दे डाली।
इस विवाद को देखकर अब यह समझ आने लगा है कि समाज की बागडौर जिन हाँथो में थी उन हाथों में सिर्फ कीचड़ ही बचा है, वो कीचड़ जो ये लोग एक दूसरे पर फेंक रहे हैं ,और फिर खुश हो रहे हैं, ये देखकर की उन्होंने सामने वाले का शर्ट गन्दा कर दिया।
काश ये कथित बुद्धजीवी यह भी देख पाते की दाग तो उनके कपड़ों पर भी लग रहा है।
अब देखिये ना हालात क्या हैं, काश सोनू का समर्थन करते हुए यदि राजनैतिक रोटियाँ ही सेकनी थी तो बेहतर था उनका समर्थन ही ना करते।
अब तो स्थिति ये पैदा हो गयी है की उस ओर भी हम,इस ओर भी हम। ये जुबानी जंग जो भी जीते हारना तो कायस्थ समाज को ही होगा।
समय है अभी, उठो,आँखें खोलो, एकता व विकास की बातें खूब कर ली, एक होकर समाज हित में जरा काम कर लो।
-कवि स्वप्निल
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