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संगठन प्रभावी नहीं होगा,अगर सिर्फ पदलोलुपता है, तो फिर एकता के नारे को छोड़ना होगा-महथा ब्रज भूषण सिन्हा
आखिर कायस्थ नेता को सिर्फ प्रचार ही क्यों चाहिए? आप थोडा गौर करें- राजनीति में हों या सामाजिक संगठन में, बड़े नेता हो या छोटे नेता, आप पायेंगे कि वे हर हाल में वे अपना प्रचार को ही प्रमुखता देते हैं. अगर किसी ने एक छोटा सा काम या किसी को कोई छोटी सी मदद भी किया, तो उसे बड़ा दिखाकर सालों उसे भुनाते रहेंगे. यह राजनितिक चरित्र है. पद लोलुपता एवं धन लोलुपता में सदैव आगे रहने का उपक्रम ही कायस्थ समाज के अवनति का सबसे बड़ा कारण बन रहा है. यह कहना प्रासंगिक होगा कि वर्तमान में कोई संगठन नहीं, एक गिरोह का रूप ले लिया है. जहाँ कोई कायदे-क़ानून नहीं.
इसका सबसे बड़ा उदाहरण कायस्थ समाज के एक बड़े संस्था के तथाकथित एक ग्रुप के कार्यवाहियों से समाज के सामने आया है. जनवरी में घोषित पचास हजार की आर्थिक सहायता सड़क दुर्घटना में मृत एकलौते कमाऊ पुत्र के बाद उस परिवार को त्वरित सहायता के लिए की गई थी, जिसे बड़े आयोजन कर सहायता राशि देने के नाम पर आज तक उपलब्ध नहीं कराया जा सका है. जो सामाजिक सेवा नहीं, सीधा-सीधा प्रचार और सामाजिक छल का जीता-जागता प्रमाण है. यह भी संभव है कि सहायता देने की घोषणा सिर्फ प्रचार पाने के लिए या उसके नाम पर समाज से धन उगाही के लिए किया गया हो सकता है. इससे गिरोही प्रवृति साफ़ झलकती है.
अब थोडा समाज के राजनितिक पुत्रों की ओर चलें. राजनीति में मुकाम पर पहुँच जाने वाले करीब-करीब हमारे सभी भाई के पास समाज को सहायता करने का एक भी उदाहरण सामने नहीं है. हाँ अपने परिवार को समृद्ध करने का काम किया हो तो कहा नहीं जा सकता. अधिकतर लोग तो सत्ता में हिस्सेदारी मिलते ही प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अपने को कायस्थों के इर्द-गिर्द रहना भी नापसंद करने लगते हैं. चुनावों में कायस्थ समाज से लजीज वादे करने वाले कायस्थ नेता को भी अपने समाज के प्रति रंग बदलने में देर नहीं लगती, भले ही वे चुनाव पूर्व कायस्थ पुत्र कहते नहीं अघाते हों.
हम आज एक अनुभव आपसे बांटना छह रहे हैं. वह घटना आज भी मन में ताजा है जब हम 2009 में रांची में कायस्थ सम्मलेन कर रहे थे. हमने राजनितिक नेताओं एवं सामाजिक नेताओं को आमंत्रित किया था, उसी क्रम में उस समय के एक तथाकथित बड़े सामाजसेवी / सामाजिक नेता, जो आज भी तथाकथित बड़े नेताओं में शुमार हैं, ने एयर टिकट और पांच हजार रुपयों की मांग की थी. तथा एक राजनितिक नेता तो एअरपोर्ट से ही दूसरा रास्ता पकड़ लिए. सम्मलेन में शामिल होना तो दूर की बात है, शुभकामना भी उनके मुंह से नहीं निकली. ऐसे हैं हमारे कायस्थ बंधु जिन्हें अपने समाज से कोई लगाव ही नहीं है.
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हमारा मानना है कि सामाजिक संगठनो को किसी राजनितिक भाई को ज्यादा तरजीह देने की जरुरत नहीं है. सामाजिक संगठनो के इर्द-गिर्द घुमते अपने समाज के नेताओं से सामाजिक व्यवहार का राजनीतिकरण हो जाने का खतरा ज्यादा है. हम उन राजनितिक भाईयों का सम्मान तो कर सकते हैं, मदद भी करेंगें लेकिन संगठन पर हावी न होने दें. इससे कम से कम सामाजिक सेवा में लगे भाईयों के कार्य की दिशा नहीं बदलेगी और हम सही अर्थों में सामाजिक सेवा का कार्य कर सकेंगे. राजनितिक दर्शनों का एक कुप्रभाव सामाजिक संगठनो पर भी पड़ना शुरू हो गया है. अब राजनितिक दलों की तरह सामाजिक संगठनों में भी परिवारवाद हावी हो रहा है जिसकी जीतनी भर्त्सना की जाय, कम है.
हमने आज तक किसी राजनीतिक कायस्थ नेता को समाज की मदद करते नहीं पाया. अगर इक्का-दुक्का कोई काम किसी का कर भी दिया होगा तो उसे व्यक्तिगत ही कहा जा सकता है. राजनीति से सन्यास लिए भाई का स्वभाव भी गैर राजनितिक नहीं हो पाता परिणाम स्वरूप सामाजिक कार्य हो ही नहीं पाते. ऐसे सैंकड़ों उदाहरण है हमारे सामने. हमें उससे सीख लेकर आगे बढ़ना चाहिए.
वर्तमान में सोशल मीडिया बहुत सशक्त है. हमें इसका लाभ समाज को जोड़ने में करना चाहिए. लेकिन दुःख इस बात की है कि इस माध्यम पर सामाजिक वार्तालाप या विचार-विमर्श न के बराबर होता है. इसका अर्थ यह भी है कि सामाजिक सेवा में लगे लोगों का अभाव है या मानसिकता की कमी है. अपना प्रचार-प्रसार में मशगुल नेता या कार्यकर्ता फोटो चिपका-चिपका कर सिर्फ वाह-वाही पाने के प्रयास में हर दिन नया ग्रुप बनाते रहते हैं.
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हमें उन सभी का सम्मान करना होगा जो छोटे-छोटे प्रयास से समाज के लिए कुछ करते रहते हैं. पर उनका क्या जो हर समय अपने गुण-गान में मस्त समाज की हर उपलब्धियों पर छाये रहने का प्रयास करते रहते हैं. हमारी सामाजिक परिकल्पना एक समाज - एक संगठन की होनी चाहिए. सिर्फ एकता के नारे लगाने से एकता संभव नहीं है.
एक बार किसी ने हम से कहा था कि अलग-अलग संगठन आज की आवश्यकता है और सभी को मिलकर सामूहिक नेतृत्व में काम करना चाहिए. यह अपने आप में विरोधाभाषी है. अलग संगठन का मतलब ही अलग विचारधारा है. अलग-अलग टुकड़ों के पेबंद से एकता की परिकल्पना ही कोसों दूर रहेगी. अब प्रश्न है- एक संगठन में क्या एक ही पद होंगे? भिन्न-भिन्न स्तरों पर अनेक पद होते हैं एक सामाजिक संगठन में. जरुरत है सक्षम लोगों की चुनाव की. आज सामाजिक पदों पर कैसे लोग आ रहे हैं? यह भी एक यक्ष प्रश्न है. पद के गरिमा और कर्तव्य निर्वहन की क्षमता के अनुरूप अगर लोग नहीं हैं तो जाहिर है कि संगठन प्रभावी नहीं होगा. अगर सिर्फ पदलोलुपता है, तो फिर एकता के नारे को छोड़ना होगा.
आगे फिर दूसरी क़िस्त में.............
- महथा ब्रज भूषण सिन्हा.