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सामाजिक असुरक्षा और आरक्षण के मुद्दे से संगठित होता कायस्थ समाज ?

कायस्थ समाज वैसे तो सड़क पर ना उतरने के लिए प्रसिद है , इसका पिछले ७० सालो का इतिहास भी नौकरी पेशा होने के कारण ऐसे आंदोलनों के लिए नगण्य ही माना जाता रहे है I पर बदलते दौर मे जब जाट , गुर्जर , मीणा और अब पाटीदार पटेल समुदाय ने संख्या मे कम होने के बाबजूद जिस तरह से अपनी ताकत का अहसास सरकार को कराया है I उसकी प्रतिक्रिया सम्पूर्ण सवर्ण समाज ने देनी ही थी , तो उसका एक हिस्सा होने के नाते कायस्थ समाज चुप रहता ये संभव ही नहीं है वस्तुत पिछले २० सालो ने आर्थिक उदारीकरण मे अपनी उपस्थिति को शानदार तरीके से दर्ज करवाने के बाबजूद आखिर कायस्थ समाज मे आज का युवा क्यूँ वापस वही १९९० के आरक्षण विरोध के दौर मे लौटना चाह रहा है , ये सोचने की बात है I तेज़ी से बदलती प्रथमिकताये और वैश्विक मंदी  यू तो १९९० मे मनमोहन सिंह के आर्थिक उदारीकरण के बाद मंडल से त्रस्त सम्पूर्ण कायस्थ समाज समेत सवर्ण  समाज ही प्राइवेट नौकरी की तरफ अग्रसित हुआ और उसमे सफल भी हुआ , जिसके चलते अगले १५ साल यानी २००५ तक उसको ना आरक्षण की याद आयी और ना ही ज़रूरत पड़ी I सरकारी नौकरी का ग्लैमर या फिर यूँ कहूँ की तिलिस्म टूट चूका था I समाज अपने नये सपनो के साथ जीना सीख गया था I सरकारी नौकरी के हाल ये हो गये थे की रोज लोग सरकारी नौकरी छोड़ कर या तो अच्छे पॅकेज पर प्राइवेट नौकरी मे जा रहे थे या फिर अपना काम कर रहे थे I ऐसे मे पाचवे पे कमीशन के ज़रिये सरकार ने लोगो को सरकारी नौकरी मे रोकने के प्रयास शुरू किये मगर असफल ही थी I परन्तु समाज अभी इतना परिपक्व नहीं हुआ था की वो उतार चाडाव् झेल सके और वही हुआ I २००८ मे शुरू हुई मंदी ने इस संपन्न हुए मध्यवर्ग को पहली बार डराया , जिस कायस्थ समाज ने हवाओ मे उड़ना सीख लिए था वो २० सालो ने पहली बार नौकरियां जाने का ऐसा दौर भी आएगा, सोच नहीं पाया था I ऐसे मे छठे वेतन आयोग के लागू होने और सरकार के इसे २००६ से लागू करने से सरकारी और प्राइवेट नौकरी के वेतनमान का बड़ा अंतर ख़तम हो गया I जिससे सरकारी नौकरी ना करने का वो चार्म जो कायस्थ युवा वर्ग मे ९० के दशक से शुरू होना टूटने लगा I रही सही कसर  २०१० की लौटी वैश्विक मंदी और लगातार टूटते बाज़ार ने पूरी की I मनमोहन सिंह सरकार के रुके हुए १० साल  देखा जाए तो कायस्थ समाज के इस विरोध के पीछे एक बड़ा कारण मनोमोहन सिंह की सरकार के रुके हुए १० साल भी है I २००९ मे मंदी के बाद भी अगर मनमोहन सिंह सरकार दुबारा आयी तो उसके पीछे एक ही उम्मीद ही की वो बिखरती हुई अर्थ व्यवस्था को वापस पटरी पर लायेंगे Iमगर २००८ की मंदी को सफलता से निबटने का दावा करने वाले मनमोहन सिंह अब हाथ पर हाथ बैठ गये I फलस्वरूप व्यापार और ट्रेड मे जो अस्थिरता आयी और उसके चलते प्राइवेट नौकरियो मे छटनी हुई , उसने भी नयी अर्थव्यवस्था से अमीर बने कायस्थ समाज को वापस अनिश्चितता मे धकेल दिया I ऐसे मे मनमोहन सिंह की सरकार तो २०१४ मे बदल गयी मगर नयी सरकार की और टकटकी लगाए कायस्थ समाज की इच्छाए नरेंद्र मोदी की नयी सरकार ने बढ़ गयी I कायस्थ समाज भी  ये सोच रहा था और नयी सरकार के प्रयासों को सराह भी रहा था की शायद उसके साथ वही दौर फिर आएगा जब उसे प्राइवेट नौकरी या अपने व्यापार करने मे कोई परेशानी नहीं आयेगी I मगर प्रचंड बहुमत से आयी  मोदी सरकार ने पहली बार जब जाटो के सामने घुटने टेके तो कायस्थ समाज के साथ साथ सम्पूर्ण सवर्ण समाज के हिल गया I पहली बार दुबारा से आरक्षण के विरोध की हवा चलनी शुरू हुई I इसमें १९९० मे अपने हाथ जला बैठे उन नेताओं ने भी अपनी भडास कायस्थ युवा के मन मे भरनी शुरू कर दी जो तक से आरक्षण के खिलाफ अपनी भावनाओं को दबाये बैठे थे I हार्दिक पटेल और पाटीदार आन्दोलन ने दी आग को हवा  इतना सब जब हो ही रहा था तो बची खुची कसर हार्दिक पटेल और पाटीदार आन्दोलन की सफलता ने उत्तर भारत मे सम्पूर्ण कायस्थ समाज मे फिर से एक चेतना जाग्रत कर दी है I सोशल मीडिया के इस दौर मे युवा नौकरी के लिए परेशान है , प्राइवेट नौकरी की अनिचितता और उसमे भी आरक्षण की बातें अब समाज को डराने लगी है I जिसका डरअब कायस्थ समाज के युवा और यू कहूँ की उनके माता पिता तक मे साफ दिखाई देने लगा है I युवाओं को नयी सरकार से जिस चमत्कार की आशा थी उसके कार्यन्वित होने मे लगने वाले समय ने असुरक्षा की इस भावना को और भड़का दिया है ऐसे मे आने वाले बिहार चुनाव मे कायस्थों के लिए आरक्षण देकर उन्हें दलित बनाने के लालू यादव के दांव ने समाज को और उद्देलित कर दिया है I वस्तुतः कायस्थ समाज आज दोराहे पर खड़ा है , उसे समझ नहीं आ रहा है की उसके बच्चे कहाँ जाए I आज जब वोटो की ताकत और सडको पर शक्ति प्रदर्शन ही आरक्षण पाने का साधन बनता जा रहा है तो ऐसे मे सवर्ण और पढ़े लिखे कहे जाने वाले इस समाज के लोगो के दिन मे भी आरक्षण के खिलाफ लड़ने का जज्बा भर दिया है I लोग धीरे धीरे ही सही सडको पर उतरने की तैयारी करने लगे है I उभरते नये कायस्थ नेता  २०१५ को कायस्थ समाज शायद इसलिए भी याद रखेगा क्योंकि पहली बार इस दौर मे स्थापित और उभरते कायस्थ नेताओं ने भी ये मानना शुरू किया की अब कायस्थ समाज की बाते खुल कर करी जाए I इसके लिए सबसे पहले कदम बीजेपी से राज्य सभा सांसद श्री आर के सिन्हा ने उठाया I उन्होंने कायस्थों की समस्याओं को सूना शुरू किया और उनके लिए बोलना भी शुरू किया इसी क्रम मे उन्होंने पहले कायस्थ समागम  करके सबको वुलाया, और समाज के हर नेता को मंच पर जगह भी दी,  इससे समाज को नेता के तोर पर भी एक विशवास जागा I आज वो नियमित "संगत और पंगत "के माध्यम से समाज को जोड़ने मे लगे है I इसी क्रम मे भोपाल से सांसद बने श्री आलोक संजर ,मथुरा से कांग्रेस विधायक श्री प्रदीप माथुर, दिल्ली से श्रीमती नीरा शास्त्री भी अब खुल कर कायस्थ समाज के लिए आगे आये I उभरते कायस्थ नेताओं मे आगरा से श्री सुरेन्द्र कुल्श्रेस्ठ , लखनऊ से श्री मनोज श्रीवास्तव, नॉएडा से श्री राजन श्रीवास्तव , इलाहबाद से श्री धीरेन्द्र श्रीवास्तव,  रोहतक से हर्ष कुल्श्रेस्ठ  भी कायस्थ समाज की लड़ाई को सडको पर लड़ने के लिए प्रतिबद्ध दिखे I आगे क्या ? दरअसल पिछले ६७ सालो मे पहली बार अपनी सारी समस्याओं का हल जाती के तोर पर संगठित होने पर ही देख रहा है I बरसो से सर्वसमाज के लिए बातें करने वाले अपने नेताओं जैसे डा राजेन्द्र प्रसाद या श्री लाल बहादुर शास्त्री जी की उपेक्षा और जातिवाद की शह पर संविधान निर्माता तक का दर्जा पाए डा अम्बेडकर की पूजा ने भी कायस्थ समाज को असुरक्षित कर दिए है कायस्थ समाज के हालत यहाँ तक खराब है की जिस बिहार मे कभी ३० से ३५ विधायक कायस्थ होते आज वहां 4 कायस्थ नेता भी इस स्थिति मे नहीं I उदाहरण के तोर पर बिहार मे नितीश कुमार जब मुख्यमंत्री बदलते है तो उन्हें वोटो के दबाब मे  मांझी तो मुख्यमंत्री बन्ने के लिए उपयुक्त लगते है , मगर उनकी पार्टी के एक मात्र कायस्थ नेता डा अजय आलोक समझ नहीं आते I उत्तर प्रदेश मे भी सरकार चाहे मायावती की हो या अखिलेश यादव की कायस्थ नेताओं को मंत्रिपद देने के नाम पर सब पूछने लगते है I इसलिए आज कायस्थ समाज का युवा आरक्षण हो या राजनीती सब मे एक भी बात देख रहा है की आज के दौर मे जब जाती की बात करके ही अपना हक़ माँगा जा सकता है तो बिहार हो या उत्तर प्रदेश दोनों मे जाती के तोर पर ही संगठित हो कर लड़ा जाए और अपना हक़ लिया जाए I आशु भटनागर   

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