बिहार चुनाव अब पूरी तरीके से अपने रंग में रंग चुका है पार्टियों द्वारा लगातार अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी गई है या कर दी जा रही है और हर बार की तरह कायस्थ समाज के स्थानीय कार्यकर्ताओं नेताओं का रुदन एक बार फिर से चालू हो गया है की कायस्थों को पर्याप्त मात्रा में राजनीतिक दलों द्वारा प्रतिनिधित्व नहीं दिया जा रहा है
लेकिन समझने वाली बात यह है कि क्या बिहार के कायस्थ इस रुदन के साथ खुद की मांग को राजनीतिक दलों को समझा पा रहे हैं या नहीं बिहार के जातीय समीकरण में लगभग 30 सीटों पर कायस्थ वोटर प्रभावशाली होता है जिनमें से पटना और उसके आसपास की 10 सीटों पर उलटफेर करने की गुंजाइश भी रखता है ऐसे में इतने बड़े हिस्से को प्रभावित करने के बावजूद कायस्थ समाज के कार्यकर्ताओं का यह रुदन कि उनको बड़ा पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है सही है या फिर यह हमारी आदत बन गया है ।
असल में कायस्थ समाज के युवा 50 साल पहले की सामाजिक स्थिति को जातिवाद के चश्मे से दोहराने हैं की दौड़ में लग गए हैं जातिवाद के जस संख्या बल का सहारा लेकर वो राजनीतिक दलों से टिकट मांग रहे हैं उसमें समाज काफी पीछे हैं असली समस्या यह है कि अक्सर कायस्थ समाज के अधिकांश नेता पटना और उसके आसपास के क्षेत्र से ही टिकट की लड़ाई लड़ रहे होते हैं क्योंकि कायस्थों का सबसे ज्यादा वर्चस्व शहरी क्षेत्रों में हैं ऐसे में गांवों में उनकी तैयारी और टिकट लेने की महत्वाकांक्षा राजनीतिक दलों में दिखाई नहीं देती है और शहरी सीटों पर जातीय समीकरणों के साथ-साथ धनबल और बाहुबल में कायस्थ हमेशा पीछे रह जाते हैं ऐसे में गिनती के तीन और चार सीटों पर ही कायस्थों का प्रतिनिधित्व हर राजनीतिक पार्टी से दिखाई देता है जिनमें कुमरार, बांकीपुर, दीघा और नरकटियागंज जैसे नाम लिए जा सकते हैं और इन्हीं सीटों पर तमाम कायस्थ अलग-अलग पार्टियों से अपनी दावेदारी की मांग करते हैं जबकि इसके अलावा मुजफ्फरपुर, वैशाली, बक्सर जैसे तमाम सीटों पर ना तो कायस्थ समाज के नेता जमीनी तौर पर कोई मेहनत करते देखते हैं ना ही वहां पर टिकट की मांग सामाजिक नेताओं के द्वारा रखी जाती है ऐसे में राजनीतिक दल भी 3 से 4 सीटों पर ही कायस्थों को टिकट देकर इतिश्री कर लेते हैं और हम हर बार की तरह अपने पारंपरिक रुदन को शुरू कर देते हैं और अंत में मजबूरी में एक ही जगह वोट भी दे आते हैं
समाज के नेताओं का समाज से संपर्क ना होना या उनको महत्व ना देना भी उनकी दावेदारी को कम करता है बिहार में राजनेताओं का एक बड़ा हिस्सा सामाजिक कार्यक्रमों से अपनी दूरी बनाकर रखता है और सिर्फ चुनाव के समय ही खुद को लाला कहलाने में गर्व महसूस करता हूं इसके बाद समाज के अस्तित्व की लड़ाई लड़ने में यह नेता हमेशा नाकाम रहते हैं राजनीतिक दलों के अलावा छोटे पार्टियों या निर्दलीय लड़ने वाले कायस्थ उम्मीदवारों को मिलने वाले वोटों से आप इस प्रभाव का अंदाजा लगा सकते हैं 2015 के बिहार चुनाव में निर्दलीय लड़ने वाले सभी उम्मीदवारों को मिलने वालाए वोटों की अधिकतम संख्या 4000 तक सीमित थी जिसके बाद राजनीतिक दल ऐसे उम्मीदवारों के बाद यह मान लेते हैं कायस्थ उम्मीदवारों को मिलने वाला वोट दरअसल समाज का नहीं राजनीतिक दल का होता है । और उनके आगे बढ़ने की गुंजाइश समाप्त हो जाती है
कायस्थ समाज जब तक रुदन की जगह जमीनी स्तर पर धनबल बाहुबल और जनता के साथ का दावा दिखाना नहीं सीखेगा तब तक यह रुदन चालू रहेगा