Home » चौपाल » भड़ास » विवेक जी कायस्थ को कायस्थ से क्रय विक्रय जैसी अव्यावहारिक आर्थिक नीति फिलहाल ही नहीं भविष्य में भी बाजार के कोड आफ कन्डक्ट के तहत एक दिवास्वप्न ही लगता है : मनोरंजन सहाय

विवेक जी कायस्थ को कायस्थ से क्रय विक्रय जैसी अव्यावहारिक आर्थिक नीति फिलहाल ही नहीं भविष्य में भी बाजार के कोड आफ कन्डक्ट के तहत एक दिवास्वप्न ही लगता है : मनोरंजन सहाय

आज यू ट्यूव पर एक इंटरव्यू प्रसारित हो रहा था, जिसमें 1887 में स्थापित कायस्थ महासभा की परम्परा को जीबित रखने का श्रेयधारी वर्तमान में एक कायस्थ महासभा के महासचिव श्री विवेक सकसेना का किसी टीवी चैनल के सम्वाददाता आशीष कुलश्रेष्ठ ( ऐंकर के शुभ नाम में त्रुटि हो सकती है, मगर वह कुलश्रेष्ठ थे , यह निश्चित है) इंटरव्यू कर रहे थे। इसमें एक गर्व की बात यह थी कि " "वालन्टियर" में वर्षों पूर्व प्रकाशित केप्टेन जयप्रकाश के शोधपरक लेख के अनुसार श्री विवेक सक्सेना ने उनका नाम उद्धृत किये बिना कायस्थों को पंचम वर्ण बताया। मगर फिर वह आधुनिक समय में लौट आये और उन्होने वर्तमान में कायस्थों को वैश्य वर्ण में मान्यता दिया जाना स्वीकार किया, जिसका कोई प्रमाण ही नहीं है, जबकि भारतीय विद्या मंदिर कोलकाता से प्रकाशित साहित्यिक और समीक्षात्मक एवम् शोधपरक लेखों की पत्रिका " वैचारिकी" के नवम्वर - दिसम्बर 2015 के अंक में - डा. ए. एल. श्रीवास्तव , 1-बी, स्ट्रीट 24 सेक्टर 9 भिलाई490009, (छ.ग.) मो. 09827847377 ने 20 बीं सदी के प्रथम या व्दितीय दशक म़े तत्कालीन कलकत्ता हाइकोर्ट व्दारा कायस्थों को क्षूद्र घोषित करने के निर्णय के बिरुद्ध इलाहाबाद हाईकोर्ट म़े दायर याचिका का जिक्र करते हुये कहा है कि- " इसके विचारार्थ एक पीठ का गठन किया गया। उस पीठ में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश हरिशचंदपति त्रिपाठी भी सदस्य बनाये गये क्योंकि वह संस्कृत के विद्वान भी थे। उनके सुझाव पर पीठ ने इस विषय पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे पं. रघुवरलाल मिट्ठालाल शास्त्री के विचार जानने का निर्णय लिया। इसका कारण था कि शास्त्री जी ने देशभर म़े घूम घूम कर कायस्थों के रहन -सहन, रीति -रिवाज, खानपान आदि का विस्तृत अध्ययन किया था । फलत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने शास्त्री जी को सादर आमंत्रित किया और एक या दो दिन उनके व्याख्यान को खचाखच भरे न्यायालय के सभागार में उन्हे सुना गया।प्राचीन भारतीय वाड्.मय तथा पुरातात्विक (अभिलेखीय) साक्ष्यों के आधार पर शास्त्री जी ने कायस्थों की उत्पत्ति ब्राम्हणों से बतलाई।" इस तर्क का ध्यान ही नहीं दिया। जबकि पत्रिका में इस लेख के प्रकाशित होते ही इस लेख पर विचार विनिमय के लिये म़ै इसकी छायाप्रतियां तमाम सजातीय समाचार पत्र पत्रिकाओं और संस्थाओं को भेज चुका हूं। लेख की छायाप्रति भेजने का एक अभिप्राय यह था कि इसी लेख के अनुसार - पं. रघुवरलार मिट्ठालाल जी के शिष्य और ए. एल. श्रीवास्तव साहब के गुरू रहे प्रोफेसर श्यामनारायण जी ने एक पुस्तक तैयार की थी और उस सम्पूर्ण पुस्तक को श्याम नारायण जी ने अपने शैयारूढ गुरु पं. रघुवरलाल मिट्ठालाल जी को सुना सुना कर उसके तथ्यों का समर्थन हासिल किया था। यह पुस्तक "कायस्थ कौन थे" शीर्षक से 1972- म़े इलाहाबाद से ही प्रकाशित हुई थी तो मेरा ख्याल था कि कोई सजातीय साहित्यिकजन के नगर इलाहाबाद का मान रखते हुये प्रो. श्यखमनारायण जी का पता लगाकर यह पुस्तक समाज के शोधपरक जन के समक्ष लायेगा, मगर ; करूं का आस निरास भई। अब अगर हम अपने वंश की उत्पत्ति भगवान चित्रगुप्त से होने के इतर किसी अन्य धारणा की तरफ जाकर कायस्थों को पंचम वर्ण से अलग कोई वर्ण - वैश्य वर्ण से मानते ह़ै तो डा. ए.एल. श्रीवास्तव जैसा कोई प्रमाण देना चाहिये। इस साक्षात्कार म़े उत्तरप्रदेश के हाल में सम्पन्न उपचुनावों में भा ज पा की पराजय का सेहरा अपने सिर बांधते हूये महासचिव ने कहा कि इसका कारण वंहा कायस्थों कि सामूहिक रूप से मतदान का बहिष्कार करना था। इसके पहले उत्तरप्रदेश के ही कायस्थ पिछले लोकसभा चुनावों में भा ज पा की शानदार जीत का कारण कायस्थों का इस राजनैतिक दल का सामूहिक समर्थन बता चुके थे और विधान सभा चुनावों म़े कायस्थों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं देते हूये चुनाव के प्रत्या्शी के रूप म़ें टिकिट नह़ी देने पर नाराजी जता कर भा ज पा का बिरोध करने की बात कही थी और भा ज पा को उन चुनावों में अप्रत्याशित बहुमत मिला था। अब इस उपचुनाव में भा ज पा के बिरोध में चुनाव का बहिष्कार करने की बात सत्य है या विधानसभा चुनावों में , यह एक बिरोधाभासी बयान है,और चुनाव का बहिष्कार और किसी राजनैतिक दल विशेष का बिरोध बिल्कुल दो भिन्न बातें है। यही नहीं अपने साक्षात्कार के आरम्भ में ही ऐंकर के जातीय ऐकता के प्रश्न पर महासचिव महोदय, यह स्वीकार कर चुके ह़ै कि इस जाति के अधिकतर लोग शिक्षित हैं इसलिये हम किसी के झंडे तले क्यों आबें , जैसी हकीकत स्वीकार कर चुके हैं तो मतदान म़े एक विशेष राजनैतिक दल के सामूहिक बिरोध या चुनाव के सामूहिक बहिष्कार की बात का सामूहिक रूप से स्वीकार कर लिया जाना पारस्परिक बिरोधी बयान है। इसके बाद में महासचिव महोदय ने कहा कि वह प्रधान मंत्री से मिलने के लिये समय मांग रहे हैं, समय मिलते ही वह कायस्थों की जनसंख्या के आधार पर कायस्थों को आल्प संख्यक घोषित करने की मांग करेंगे। महासचिव का यह वयान - कानी काकी छाछ देदे जैसा लगता है, क्योंकि आप जिससे कुछ मांगने जा रहे हैं उसी को उसके प्रति आपके बिरोध की बातपहले से ही कर रहे ह़ैं। महासचिव महोदय ने कायस्थों को व्यवसाय के क्षेत्र म़े स्थापित करने के लिये सभी कायस्थ बंधुओं का आपस में कायस्थ से कायस्थ को और कायस्थ को कायस्थ से क्रय विक्रय जैसी अव्यावहारिक आर्थिक नीति की बात कही, जो तभी हो सकता है जब पूरे बाजार पर सिर्फ कायस्थों का ही आधि पत्य हो जो फिलहाल ही नहीं भविष्य में भी बाजार के कोड आफ कन्डक्ट के तहत एक दिवास्वप्न ही लगता है और यह - सूत न कपास, जुलाहों मेओ लट्ठमलट्ठा जैसी हास्यस्पद स्थिति उत्पन्न करता है। बाजार म़े नई दुकान खोलने बाला सबसे पहले पुराने स्थापित व्यवसाइयों की सद्भावना अर्जित करता है, मेरी दुकान से सिर्फ मेरे सजातीय माल खरीदेंगे जैसी धमकी नहीं देता। सामूहिक विवाहों की चर्चा म़े महासचिव महोदय ने कहा- गरीब कायस्थ परिवार की लड़कियां- आप अपने ही समाजबन्धुओं को गरीब कहकर उनका स्वाभिमान हनन तो पहले ही कर रहे है, आप उन्हे क्षमता या साधनविपन्न कह़े तो शायद सीधे गरीब कहने से वह कम आहत होंगे। पद के अनुसार भाषा , शब्दसंयोजन और व्यवहार लम्बे अनुभव की देन होती है। लेखक कायस्थ समाज से जुडी जानकारी के विशेषग्य है I लेख में दिए विचार लेखक के अपने हैं कायस्थ खबर का उनसे सहमत या असहमत होना आवश्यक नहीं है 

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